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रामचरित मानस


चौपाई :


* बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा। पुनि नृप बचन राज रस भंगा॥


पुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा। कहेसि राम लछिमन संबादा॥1॥



भावार्थ:-फिर श्री रामजी के राज्याभिषेक का प्रसंग फिर राजा दशरथजी के वचन से राजरस (राज्याभिषेक के आनंद) में भंग पड़ना, फिर नगर निवासियों का विरह, विषाद और श्री राम-लक्ष्मण का संवाद (बातचीत) कहा॥1॥



* बिपिन गवन केवट अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा॥


बालमीक प्रभु मिलन बखाना। चित्रकूट जिमि बसे भगवाना॥2॥



भावार्थ:-श्री राम का वनगमन, केवट का प्रेम, गंगाजी से पार उतरकर प्रयाग में निवास, वाल्मीकिजी और प्रभु श्री रामजी का मिलन और जैसे भगवान्‌ चित्रकूट में बसे, वह सब कहा॥2॥



* सचिवागवन नगर नृप मरना। भरतागवन प्रेम बहु बरना॥


करि नृप क्रिया संग पुरबासी। भरत गए जहाँ प्रभु सुख रासी॥3॥



भावार्थ:-फिर मंत्री सुमंत्रजी का नगर में लौटना, राजा दशरथजी का मरण, भरतजी का (ननिहाल से) अयोध्या में आना और उनके प्रेम का बहुत वर्णन किया। राजा की अन्त्येष्टि क्रिया करके नगर निवासियों को साथ लेकर भरतजी वहाँ गए जहाँ सुख की राशि प्रभु श्री रामचंद्रजी थे॥3॥



* पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए॥


भरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी॥4॥



भावार्थ:-फिर श्री रघुनाथजी ने उनको बहुत प्रकार से समझाया, जिससे वे खड़ाऊँ लेकर अयोध्यापुरी लौट आए, यह सब कथा कही। भरतजी की नन्दीग्राम में रहने की रीति, इंद्रपुत्र जयंत की नीच करनी और फिर प्रभु श्री रामचंद्रजी और अत्रिजी का मिलाप वर्णन किया॥4॥



दोहा :


* कहि बिराध बध जेहि बिधि देह तजी सरभंग।


बरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभ अगस्ति सतसंग॥65॥



भावार्थ:-जिस प्रकार विराध का वध हुआ और शरभंगजी ने शरीर त्याग किया, वह प्रसंग कहकर, फिर सुतीक्ष्णजी का प्रेम वर्णन करके प्रभु और अगस्त्यजी का सत्संग वृत्तान्त कहा॥65॥



चौपाई :


* कहि दंडक बन पावनताई। गीध मइत्री पुनि तेहिं गाई॥


पुनि प्रभु पंचबटीं कृत बासा। भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा॥1॥



भावार्थ:-दंडकवन का पवित्र करना कहकर फिर भुशुण्डिजी ने गृध्रराज के साथ मित्रता का वर्णन किया। फिर जिस प्रकार प्रभु ने पंचवटी में निवास किया और सब मुनियों के भय का नाश किया,॥1॥



* पुनि लछिमन उपदेस अनूपा। सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा॥


खर दूषन बध बहुरि बखाना। जिमि सब मरमु दसानन जाना॥2॥



भावार्थ:-और फिर जैसे लक्ष्मणजी को अनुपम उपदेश दिया और शूर्पणखा को कुरूप किया, वह सब वर्णन किया। फिर खर-दूषण वध और जिस प्रकार रावण ने सब समाचार जाना, वह बखानकर कहा,॥2॥



* दसकंधर मारीच बतकही। जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही॥


पुनि माया सीता कर हरना। श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना॥3॥



भावार्थ:-तथा जिस प्रकार रावण और मारीच की बातचीत हुई, वह सब उन्होंने कही। फिर माया सीता का हरण और श्री रघुवीर के विरह का कुछ वर्णन किया॥3॥



* पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्हीं। बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही॥


बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा। जेहि बिधि गए सरोबर तीरा॥4॥



भावार्थ:-फिर प्रभु ने गिद्ध जटायु की जिस प्रकार क्रिया की, कबन्ध का वध करके शबरी को परमगति दी और फिर जिस प्रकार विरह वर्णन करते हुए श्री रघुवीरजी पंपासर के तीर पर गए, वह सब कहा॥4॥
दोहा :


* प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग।


पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग॥66 क॥



भावार्थ:-प्रभु और नारदजी का संवाद और मारुति के मिलने का प्रसंग कहकर फिर सुग्रीव से मित्रता और बालि के प्राणनाश का वर्णन किया॥66 (क)॥



* कपिहि तिलक करि प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास।


बरनन बर्षा सरद अरु राम रोष कपि त्रास॥66 ख॥


भावार्थ:-सुग्रीव का राजतिलक करके प्रभु ने प्रवर्षण पर्वत पर निवास किया, वह तथा वर्षा और शरद् का वर्णन, श्री रामजी का सुग्रीव पर रोष और सुग्रीव का भय आदि प्रसंग कहे॥66 (ख)॥



चौपाई :


* जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए। सीता खोज सकल दिदि धाए॥


बिबर प्रबेस कीन्ह जेहि भाँति। कपिन्ह बहोरि मिला संपाती॥1॥



भावार्थ:-जिस प्रकार वानरराज सुग्रीव ने वानरों को भेजा और वे सीताजी की खोज में जिस प्रकार सब दिशाओं में गए, जिस प्रकार उन्होंने बिल में प्रवेश किया और फिर जैसे वानरों को सम्पाती मिला, वह कथा कही॥1॥



* सुनि सब कथा समीरकुमारा। नाघत भयउ पयोधि अपारा॥


लंकाँ कपि प्रबेस जिमि कीन्हा। पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा॥2॥



भावार्थ:-सम्पाती से सब कथा सुनकर पवनपुत्र हनुमान्‌जी जिस तरह अपार समुद्र को लाँघ गए, फिर हनुमान्‌जी ने जैसे लंका में प्रवेश किया और फिर जैसे सीताजी को धीरज दिया, सो सब कहा॥2॥



* बन उजारि रावनहि प्रबोधी। पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी॥


आए कपि सब जहँ रघुराई। बैदेही की कुसल सुनाई॥3॥



भावार्थ:-अशोक वन को उजाड़कर, रावण को समझाकर, लंकापुरी को जलाकर फिर जैसे उन्होंने समुद्र को लाँघा और जिस प्रकार सब वानर वहाँ आए जहाँ श्री रघुनाथजी थे और आकर श्री जानकीजी की कुशल सुनाई,॥3॥



* सेन समेति जथा रघुबीरा। उतरे जाइ बारिनिधि तीरा॥


मिला बिभीषन जेहि बिधि आई। सागर निग्रह कथा सुनाई॥4॥



भावार्थ:-फिर जिस प्रकार सेना सहित श्री रघुवीर जाकर समुद्र के तट पर उतरे और जिस प्रकार विभीषणजी आकर उनसे मिले, वह सब और समुद्र के बाँधने की कथा उसने सुनाई॥4॥

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